Saturday, June 11, 2011

संवाद

काम कितना कठिन है जरा सोचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

गीत जिनके लिए रोज लिखता मगर।
बात उन तक पहुँचे तो कटता जिगर।
कैसे संवाद हो साथ जन से मेरा,
जिन्दगी बीत जाती मिलती डगर।
बन के तोता फिर गीता को क्यों बाँचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

बिन माँगे सलाहों की बरसात है।
बात जन तक जो पहुँचे वही बात है।
दूरियाँ कम करूँ जा के जन से मिलूँ,
कर सकूँ गर इसे तो ये सौगात है।
बिन पेंदी के बर्तन से जल खींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

सिर्फ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ,
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।
आम को छोड़कर नीम को सींचना।
गाँव अंधों का हो आईना बेचना।।

नोट : - हिंदी में मेरे लिखे इस गीत का मैथिली में भावानुवाद बड़े भाई आदरणीय विद्याधर झा द्वारा किया गया हैजो नीचे प्रस्तुत है.

समाद (मैथिली भावानुवाद)

काज अछि बड़ कठिन अहाँ बुझि ली।

आन्हरक गाँव मे आइना बेचि दी।।


गीत जकरा लय सब दिन लिखलहुँ जतय।

बात ओकरा नहि पहुँचल तऽ फाटल हृदय।

कोना संवाद होयत हमर लोक सँ,

बीतल जिनगी मुदा रस्ता नै भेटत ओतय।

बनि कय सुग्गा फेर गीता कियै बाँचि दी।

आन्हरक गाँव मे आइना बेचि दी।।


बिन माँगल सलाहक बरसात अछि।

बात सब तक जे पहुँचय ओही बात अछि।

दूरी कम भऽ सकय सब सँ भेंटो होअए,

कऽ सकी जौं एहेन तऽ सौगात छी।

बिना पेंदी के लोटा सँ जल खींच ली।

आन्हरक गाँव मे आइना बेचि दी।।


सिर्फ अपना लय जीवन की जीवन भला।

गाँव बस्ती मे मृत्युक चलल सिलसिला।

दोसरा के हृदय-तार केँ छू सकी,

सीख लेतौं सुमन काश ईहो कला।

आम के छोड़ि कय नीम केँ सींच दी

आन्हरक गाँव मे आइना बेचि दी।।

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